Saturday, February 28, 2009

दुर्गतिनाशिनी विंध्यवासिनी


भगवती विंध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं। विंध्याचलसदा से उनका निवास-स्थान रहा है। जगदम्बा की नित्य उपस्थिति ने विंध्यगिरिको जाग्रत शक्तिपीठ बना दिया है। महाभारत के विराट पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं- विन्ध्येचैवनग-श्रेष्ठे तवस्थानंहि शाश्वतम्।हे माता! पर्वतों में श्रेष्ठ विंध्याचलपर आप सदैव विराजमान रहती हैं। पद्मपुराणमें विंध्याचल-निवासिनीइन महाशक्ति को विंध्यवासिनी के नाम से संबंधित किया गया है- विन्ध्येविन्ध्याधिवासिनी।
श्रीमद्देवीभागवतके दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकत्र्ता ब्रह्माजीने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपाको उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुवमनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ।
त्रेतायुगमें भगवान श्रीरामचन्द्र सीताजीके साथ विंध्याचलआए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वर महादेव से इस शक्तिपीठ की माहात्म्य और बढ गया है। द्वापरयुगमें मथुरा के राजा कंस ने जब अपने बहन-बहनोई देवकी-वसुदेव को कारागार में डाल दिया और वह उनकी सन्तानों का वध करने लगा। तब वसुदेवजीके कुल-पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस के वध एवं श्रीकृष्णावतारहेतु विंध्याचलमें लक्षचण्डीका अनुष्ठान करके देवी को प्रसन्न किया। जिसके फलस्वरूप वे नन्दरायजीके यहाँ अवतरित हुई।
मार्कण्डेयपुराणके अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती(देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, देवताओं वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवेंयुग में शुम्भऔर निशुम्भनाम के दो महादैत्यउत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोपके घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी।
लक्ष्मीतन्त्र नामक ग्रन्थ में भी देवी का यह उपर्युक्त वचन शब्दश:मिलता है। ब्रज में नन्द गोप के यहाँ उत्पन्न महालक्ष्मीकी अंश-भूता कन्या को नन्दा नाम दिया गया। मूर्तिरहस्य में ऋषि कहते हैं- नन्दा नाम की नन्द के यहाँ उत्पन्न होने वाली देवी की यदि भक्तिपूर्वकस्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के आधीन कर देती हैं।
श्रीमद्भागवत महापुराणके श्रीकृष्ण-जन्माख्यान में यह वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजीने कंस के भय से रातोंरात यमुनाजीके पार गोकुल में नन्दजीके घर पहुँचा दिया तथा वहाँ यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा ले आए। आठवीं संतान के जन्म का समाचार सुन कर कंस कारागार में पहुँचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर जैसे ही पटक कर मारना चाहा, वैसे ही वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुँच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित किया। कंस के वध की भविष्यवाणी करके भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गई।
मन्त्रशास्त्रके सुप्रसिद्ध ग्रंथ शारदातिलक में विंध्यवासिनी का वनदुर्गा के नाम से यह ध्यान बताया गया है-
सौवर्णाम्बुजमध्यगांत्रिनयनांसौदामिनीसन्निभां
चक्रंशंखवराभयानिदधतीमिन्दो:कलां बिभ्रतीम्।
ग्रैवेयाङ्गदहार-कुण्डल-धरामारवण्ड-लाद्यै:स्तुतां
ध्यायेद्विन्ध्यनिवासिनींशशिमुखीं पा‌र्श्वस्थपञ्चाननाम्॥
जो देवी स्वर्ण-कमल के आसन पर विराजमान हैं, तीन नेत्रों वाली हैं, विद्युत के सदृश कान्ति वाली हैं, चार भुजाओं में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं, मस्तक पर सोलह कलाओं से परिपूर्ण चन्द्र सुशोभित है, गले में सुन्दर हार, बांहों में बाजूबन्द, कानों में कुण्डल धारण किए इन देवी की इन्द्रादिसभी देवता स्तुति करते हैं। विंध्याचलपर निवास करने वाली, चंद्रमा के समान सुंदर मुखवालीइन विंध्यवासिनी के समीप सदाशिवविराजितहैं।
सम्भवत:पूर्वकाल में विंध्य-क्षेत्रमें घना जंगल होने के कारण ही भगवती विन्ध्यवासिनीका वनदुर्गा नाम पडा। वन को संस्कृत में अरण्य कहा जाता है। इसी कारण ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी विंध्यवासिनी-महापूजा की पावन तिथि होने से अरण्यषष्ठी के नाम से विख्यात हो गई है।

जय माँ विंध्यवासिनी



THE TEMPLE

Vindhyavasini Devi Temple is situated in Vindhyachal, 8 km from Mirzapur, on the banks of the holy river Ganges। It is one of the most revered Shaktipeeths of the presiding deity, Vindhyavasini Devi। The temple is visited by large number of people daily। Big congregations are held during Navratras in Chaitra (April) and Ashwin (October) months। Kajali competitions are held in the month of Jyestha (June)। The temple is situated just 2 km from the Kali Khoh, an ancient cave temple dedicated to Goddess Kali।
70 km। (one and a half hour drive) from Varanasi, Vindhyachal is a renowned religious city dedicated to Goddess Vindhyavasini। Mythologically goddess Vindhyavasini is believed to be the instant bestower of bendiction। There are several temples of other deities in the vicinity, the most famous ones being Ashtabhuja Devi Temple and kalikhoh Temple, which constitute the Trikona Parikrama (circumambulation). The Vindhyavasini Devi Temple, the Ashtabhuja temple, dedicated to Goddess Mahasaraswati (on a hollock, 3 km from Vindhyavasini temple) and the Kali khoh temple, dedicated to Goddess Kali (2 km from Vindhyavasini temple) form the Trikon Parikrama .





THE CITY


Vindhyachal, a Shakti Peet, is a center of pilgrimage in Mirzapur District, Uttar Pradesh। The Vindhyavasini Devi temple located here is a major draw and is thronged by hundreds of devotees during the Navratris of Chaitra and Ashwin months to invoke the blessings of the Goddess.
Other sacred places in the town are Ashtbhuja temple, Sita Kund, Kali Khoh, Budeh Nath temple, Narad Ghat, Gerua talab, Motiya talab, Lal Bhairav and Kal Bhairav temples, Ekdant Ganesh, Sapta Sarovar, Sakshi Gopal temple, Goraksha-kund, Matsyendra kund, Tarkeshwar Nath temple and Bhairav kund.
Accommodations are available at Hotel Jahnavi (UPSTDC) and a number of dharamshalas and guest houses.
Mirzapur is the closest railhead। Vindhyachal has regular bus services to the nearby towns. The nearest railway station is at Mirzapur. Regular bus services connect Vindhyachal to the nearby towns.

Daily Routine of Sringar - Poojan of (Maa Vindhyavasini) and Aarti Timing

1. Mangal Aarti: (in Morning) 4.00 AM to 5.00 AM
2. Raj Shree Aarti:(in Noon) 12.00 PM to 1.30 PM
3. Choti Aarti: ( in Evening)7.15 PM to 8.30 PM
4. Badi Shayan Aarti:(in Night)9.30 PM to 10.30 PM

जय माँ विंध्यवासिनी
प्रेम सो बोलो जय माता दी

जय श्री गणेश -- अभीष्ट सिद्ध करें सिद्धिविनायक


भगवान् श्रीगणेश साधारण देवता नहीं हैं। वे साक्षात् अनन्तकोटि-ब्रह्माण्डनायक,परात्पर, पूर्णतम,परब्रह्म, परमात्मा ही हैं। सृष्टि के निर्माण, पालन और संहार को निर्विघ्न बनाने के लिए ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी इनका ध्यान करते हैं। ऋग्वेद का कथन है-न ऋचेत्वत्क्रियतेकिंचनारे।हे गणेश! तुम्हारे बिना कोई भी कर्म प्रारंभ नहीं किया जाता। आदौ पूज्योविनायक:- इस उक्ति के अनुसार समस्त शुभ कार्यो के प्रारंभ में सिद्धिविनायककी पूजा आवश्यक है। विघ्नेश्वरप्रसन्न होने पर विघ्नहर्ता बनकर जब कार्य-सिद्धि में सहायक होते हैं, तब वे सिद्धिविनायक के नाम से पुकारे जाते हैं। गणपति की कृपा के बिना किसी भी कार्य का निर्विघ्न सम्पन्न होना संभव नहीं है क्योंकि वे विघ्नों के अधिपति हैं। याज्ञवलक्यस्मृतिके गणपतिकल्प में स्पष्ट शब्दों में यह उल्लेख है-
विनायक: कर्मविघ्नसिद्धयर्थविनियोजित:। गणानामाधिपत्येचरुद्रेणब्रह्मणातथा॥
ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर ने विनायक को गणों का आधिपत्य प्रदान करके कार्यो में विघ्न डालने का अधिकार तथा पूजनोपरान्तविघ्न को शांत कर देने का अधिकार भी प्रदान किया। इसलिए किसी भी देवता के पूजन में सर्वप्रथम श्रीगणेश की पूजा होती है। ऐसा न करने पर वह व्रत-अनुष्ठान निष्फल हो जाता है। भविष्यपुराणमें लिखा है-
देवतादौयदा मोहाद्गणेशोन चपूज्यते।तदा पूजाफलंहन्तिविघ्नराजोगणाधिप:॥
यदि किसी कारणवश देव-पूजन के प्रारंभ में विघ्नराजगणपति की पूजा नहीं की जाती है तो वे कुपित होकर उस साधना का फल नष्ट कर देते हैं। इसी कारण सनातनधर्म में गणेशजीकी प्रथम पूजा का विधान बना। मानव ही नहीं वरन् देवगण भी प्रत्येक कर्म के शुभारंभ में विघ्नेश्वरविनायक की पूजा करते हैं। पुराणों में इस संदर्भ में अनेक आख्यान वर्णित हैं।
श्रीगणेशपुराणमें भाद्रपद-शुक्ल-चतुर्थी को आदिदेव गणपति के आविर्भाव की तिथि माना गया है। स्कन्दपुराणमें भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से इस तिथि के माहात्म्य का गुणगान करते हुए कहते हैं-
सर्वदेवमय:साक्षात् सर्वमङ्गलदायक:।भाद्रशुक्लचतुथ्र्यातुप्रादुर्भूतोगणाधिप:॥सिद्धयन्तिसर्वकार्याणिमनसा चिन्तितान्यपि।
तेन ख्यातिंगतोलोकेनाम्नासिद्धिविनायक:॥
समस्त देवताओं की शक्ति से सम्पन्न मंगलमूर्तिगणपति का भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन आविर्भाव हुआ। इस तिथि में आराधना करने पर वे सब कार्यो को सिद्ध करते हैं तथा मनोवांछित फल देते हैं। आराधकोंका अभीष्ट सिद्ध करने के कारण ही वे सिद्धिविनायक के नाम से लोक-विख्यात हुए हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराणके अनुसार भगवती पार्वती नेपरब्रह्मको पुत्र के रूप में प्राप्त करने के लिए देवाधिदेव महादेव के परामर्श पर परम दुष्कर पुण्यकव्रत का अनुष्ठान किया था। इस व्रतराजके फलस्वरूप ही साक्षात् परब्रह्म परमेश्वर ही श्रीगणेश के रूप में उनके यहां आए।
गणेश-पूजन के समय उनके सम्पूर्ण परिवार का स्मरण करना चाहिए। सिद्धि और बुद्धि उनकी पत्नियां हैं। मुद्गलपुराणके गणेशहृदयस्तोत्रमें सिद्धि-बुद्धि से सेवित विघ्ननायकगणपति की स्तुति की गई है-
सिद्धि-बुद्धिपतिम् वन्दे ब्रह्मणस्पतिसंज्ञकम्।
माङ्गल्येशंसर्वपूज्यंविघ्नानांनायकंपरम्॥
सद्बुद्धिसे विचार करके काम करने पर ही मनोरथ सिद्ध होता है। सिद्धि-बुद्धि के साथ विनायक का ध्यान करने का यही अभिप्राय है। श्रीगणेशजीके वामभागमें (बायें) सिद्धि और दक्षिण भाग में (दाहिने) बुद्धि की संस्थितिहै। सिद्धिविनायककी उपासना से मस्तिष्क पर छाया अज्ञान का अंधकार नष्ट हो जाता है तथा बुद्धि जाग्रत होकर कार्य-सिद्धि की योजना बनाने में सक्षम हो जाती है। सिद्धि-बुद्धि से युक्त विनायक का तेज करोडों सूर्यो के प्रकाश से भी ज्यादा है-

सिद्धिबुद्धियुत: श्रीमान् कोटिसूर्याधिकद्युति:।शिवपुराणकी रुद्रसंहिताके कुमारखण्डमें श्रीगणेश के सिद्धि-बुद्धि के साथ विवाह का प्रसंग वर्णित है। गणेशपुराणके उपासनाखण्डमें भी श्रीगणेश के विवाह का विस्तार से वर्णन है। लोक-प्रचलन में गणेशजीकी पत्नियां ऋद्धि-सिद्धि के नाम से जानी जाती हैं। गणेशजीकी पत्नी सिद्धि से क्षेम और बुद्धि से लाभ नाम के अतिशय शोभासम्पन्नदो पुत्र हुए-
सिद्धेर्गणेशपत्न्यास्तुक्षेमनामासुतोऽभवत्।बुद्धेर्लाभाभिध:पुत्र आसीत्परमशोभन:॥
गणपति के रेखाचित्र स्वस्तिक (") के दोनों तरफ दो रेखायें (॥) उनकी दो पत्नियों और दो पुत्रों का प्रतीक हैं। दीपावली, बही-बसना अथवा गृह-प्रवेश आदि के समय ऋद्धि-सिद्धि और शुभ-लाभ लिखना गणेशजीका पत्नियों व पुत्रों सहित आवाहन करना ही है। क्षेम का ही दूसरा नाम शुभ है। इस प्रकार सम्पूर्ण गणेश-परिवार सदा से ही प्रथमपूज्यरहा है।
श्रीरामचरितमानसमें गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीराम-विवाह के बाद सीताजीके जनकपुर से अयोध्या में आगमन के अवसर पर सिद्धिविनायकका स्मरण चित्रित किया है-


प्रेमबिबसपरिवारुसब जानिसुलगन नरेस।कँुअरिचढाई पालकिन्हसुमिरे सिद्धि-गनेस॥
भाद्रपद-शुक्ल-चतुर्थी के दिन श्रीसिद्धिविनायकका आविर्भावोत्सवबडे धूमधाम से मनाया जाता है।
गणेशपुराणके अनुसार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चंद्रमा देख लेने पर कलंक अवश्य लगता है। ऐसा गणेश जी के अमोघ शाप के कारण है। स्वयं सिद्धिविनायकका वचन है-

भाद्रशुक्लचतुथ्र्यायो ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपिवा।अभिशापीभवेच्चन्द्रदर्शनाद्भृशदु:खभाग्॥
जो जानबूझ कर अथवा अनजाने में ही भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा का दर्शन करेगा, वह अभिशप्त होगा। उसे बहुत दुख उठाना पडेगा। भाद्र-शुक्ल-चतुर्थी का चंद्र देख लेने के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण को स्यमन्तकमणि की चोरी का मिथ्या कलंक लगा था। श्रीमद्भागवत महापुराणके दशम स्कन्ध के 57वेंअध्याय में यह कथा है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चंद्र-दर्शन हो जाने पर उसका दोष दूर करने के लिए श्रीमद्भागवत में वर्णित इस प्रसंग को पढना अथवा सुनना चाहिए।
वस्तुत:सिद्धिविनायक चतुर्थी हमें ईश्वर के विघ्नविनाशकस्वरूप का साक्षात्कार कराती है जिससे अभीष्ट-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। जीवन को निर्विघ्न बनाने के लिए आइये हम सब इनकी स्तुति करें-
आदिपूज्यंगणाध्यक्षमुमापुत्रंविनायकम्।मङ्गलंपरमंरूपंश्रीगणेशंनमाम्यहम्॥